(नागपत्री एक रहस्य-28)

अच्छा दादा जी जो लोग अपने घर पर आस्तिक मुनि का नाम लिख कर रखते हैं, उनके बारे में कुछ बताइए, आखिर क्यों लोगों को इतना विश्वास है सिर्फ एक नाम के ऊपर, कहते हुए लक्षणा ने एक नया सवाल दादा जी के समक्ष रखा। 

                    दिन-ब-दिन उसकी बढ़ती हुई जिज्ञासा और नए-नए प्रश्नों से दादाजी भी आश्चर्यचकित थे, कि अचानक इतनी जिज्ञासा लक्षणा के मन में क्यों रही है, लेकिन विषय धार्मिक था, तब सही जवाब ना देना उचित जान पड़ता।



आज वैसे ही उन्हें किसी आवश्यक कार्य से अतिशीघ्र जाना भी था, इसलिए उन्होंने सावित्री देवी को माध्यम बना, लक्षणा को प्यार से समझाया कि आपके हर सवाल का जवाब दादी के पास सुरक्षित है, वह दिन-रात शास्त्रों का अध्ययन करती हैं, इसलिए हो सकता है तुम्हें किसी प्रश्न का एक ही जगह दो उत्तर मिल सकता है। 
             लक्षणा एक ही जगह दो सुनकर भारी खुश हुई, क्योंकि उसकी रुचि धीरे-धीरे धर्म शास्त्रों में बढ़ती जा रही थी, कारण स्पष्ट था कि वह कोई सामान्य नहीं, दूजा घर का वातावरण भी धार्मिक होना, इसलिए उसके प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है।



उन्होंने सावित्री देवी को इशारा करते हुए कह दिया कि वह यथावत सप्रसंग रुचि अनुसार लक्षणा की जिज्ञासा शांत करें, लक्षणा खुशी से सावित्री देवी के पास जा बैठी, और उनके पैर दबाते हुए राजा परीक्षित और आस्तिक मुनि दोनों के विषय में सुनने को उत्सुक हो सावित्री देवी को मनाने लगे, तब सावित्री देवी ने कहना प्रारंभ किया। 
                 पांडव कुल के वंशज अर्जुन और सुभद्रा के वंश को पूर्णरूपेण मिटा देने की मंशा से महाभारत के अंतिम दौर में जब अश्वत्थामा ने संपूर्ण पांडवों को मिटा देने की शपथ ली, और सोते हुए पांडव पुत्रों को पांच पांडव को सोता हुआ मारकर आ गया, और अभिमान पूर्वक दुर्योधन को बताया।



लेकिन जब प्रातः पांचो पांडव अश्वत्थामा को ढूंढते हुए महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे, तब उन्हें जीवित देख अश्वत्थामा को बहुत ही क्रोध आया, और उस समय उसने बिना सोचे समझे ब्रह्मास्त्र को अभिमंत्रित कर पांडव कुल का नाश करने के लिए चलाया।
            जिसके जवाब में अर्जुन ने भी कुल की रक्षा हेतु ब्रह्मास्त्र का आह्वान किया, ऐसे समय में दोनों ब्रह्मास्त्र के टकराने से संपूर्ण सृष्टि का विनाश प्रत्यक्ष देख, महर्षि वेदव्यास और नारद ने उन अस्त्रों को अपनी योग शक्ति से अपने अपने स्थान पर रोक दिया।




अश्वत्थामा और अर्जुन के जगत के कल्याण के लिए अस्त्र वापस लेने के लिए कहा, अर्जुन ने ऋषि आज्ञा अनुसार अस्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा अधूरी विद्या के कारण उस अस्त्र को वापस लेने में असमर्थ था, तब जब उसे दिशा परिवर्तन करने के लिए कहा गया, 
                    कपटी मन से उसने क्रोधवश उस अस्त्र की दिशा अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर मोड़ दिया, यह सोच कर कि अंतिम उत्तराधिकारी पांडवो का नष्ट हो जाएगा। लेकिन श्री कृष्ण के रहते भला कहां कोई अनहोनी हो सकती थी।



उन्होंने एक और अश्वत्थामा को श्राप दिया कि, हे अश्वत्थामा तुमने एक अजन्मे शिशु को मारने की कोशिश की, वह सृष्टि ना देख सके, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि कथित कर्म के लिए तुम्हें इस सृष्टि के अंत तक अपने अमूल्य मणि के बिना (जो उसे जन्म से प्राप्त थी, जिसके कारण कभी उसे कोई रोग नहीं हो सकता)
            अमूल्य मणि के बिना अपने सिर पर लिए घाव को इस सृष्टि के अंत तक लेकर घूमता रहेगा, और यह कहते हुए उससे यह अमूल्य मणि छीन लिया,वहीं दूसरी और अपने सुदर्शन चक्र को भेज उत्तरा के गर्भ की सुरक्षा की और ब्रह्मास्त्र का प्रभाव निष्फल कर दिया। 




ये वही अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु और उत्तरा के बेटे राजा परीक्षित है , जिन्होंने जन्म से पूर्व ही श्री कृष्ण की कृपा प्राप्त थी, लेकिन काल की गति कोई नहीं जानता, इनका भरा पूरा परिवार जिसमें इनकी दो पत्नियां.. पहली मद्रावती और दूसरी अद्रिका थी , और इनका पुत्र जनमेजय जो बड़ी रानी पद्मावती के पुत्र थे, और सर्प यज्ञ के लिए प्रख्यात है। 
               एक समय काल के प्रभाव समीक ऋषि जो ध्यान अवस्था में थे, वह उनका अपमान कर आए, क्योंकि उस समय उनके सर पर स्वर्ग मुकुट था, जिसमें कलयुग का प्रभाव था और उन्होंने ऋषि का अपमान करते हुए उनके गले में धनुष की नोक से उठाकर एक मृत सर्प को डाला, समीक ऋषि उस समय ध्यान में लीन थे, उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं था। 



लेकिन जब यह सूचना उनके पुत्र श्रृंगी ऋषि को मिली, तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, और उन्होंने सोचा कि ऐसा दुरात्मा राजा जो ब्राह्मणों का अपमान करता है, इसे जीवित रहने का कोई हक नहीं है, बिना सोचे समझे बालक श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया, कि तुम्हें आज से सातवें दिन तक तक्षक सर्प डसेंगा।
            इस तरह कलयुग ने अपना कार्य संपन्न किया, क्योंकि राजा परीक्षित के जीते जी वह अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता था, लेकिन ऋषि का दिया हुआ श्राप टाला नहीं जा सकता, इसलिए लाख उपायों के बाद राजा परीक्षित जो अपने आप को प्रभु में लीन कर चुके थे, अपने पुत्र जनमेजय को राज्य सौंप वे सत्कर्म में व्यस्त थे।




राजा परीक्षित के  मंत्रियों ने मोहवश एक विशेष महल की रचना करवाई जो सात मंजिला थी, और राजा को सातवें मंजिल पर पूर्ण सुरक्षा के साथ बैठाया , लेकिन भला ऋषि का श्राप कैसे टाला जा सकता था,
                 जब उचित समय पर तक्षक नाग मनुष्य रूप धारण करके राजा के प्राण हरने के लिए निकले, तभी उन्हें रास्ते में उस समय उन्हें एक ब्राह्मण मिले जो तक्षक नाग से राजा की रक्षा हेतु राजा के पास जा रहा था, लेकिन तक्षक नाग ने काल के प्रभाव से उस ब्राह्मण को मनचाहा धन देकर वापस लौटा दिया। 



लेकिन जैसे उन्होंने राजा परीक्षित के राज्य में प्रवेश किया, तो वहां की व्यवस्था देख परेशान हो उठे, और देखने लगे कि मैंने ऋषि श्राप को सफल ना किया तो स्वयं ही उस श्राप से मेरे कुल का नाश हो जाएगा,
               इसलिए उन्होंने बहुत से नागों को तपस्वी का रूप देकर फल फूल लेकर राजभवन की ओर भेजा, और स्वयं सूक्ष्म रूप धारण कर उन्हीं फूलों में छिपे।



तपस्वियों के आने-जाने पर राजमहल में कोई रोक ना थी, इस तरह वो राजा परीक्षित के पास पहुंच गया, और अपना वास्तविक रूप ले उन्होंने राजा परीक्षित को काट लिया, इस तरह राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई, जिसकी सूचना पा उनका पुत्र जनमेंजय अत्यंत क्रोधित हुआ, और उसी ने क्रोध में आकर जनमेजय यज्ञ जिसे सर्वनाश यज्ञ भी कहा जाता है को संपन्न कराया।


क्रमशः....

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